बिहार चुनाव: मगध की सियासत में आरजेडी बनाम एनडीए,झारखंड और बंगाल के असर से पलट सकते हैं समीकरण!
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**मगध की राजनीति** पर आधारित **बिहार विधानसभा चुनाव 2025** के लिए आर्टिकल तैयार किया गया है:
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**बिहार विधानसभा चुनाव 2025: मगध की सियासत में आरजेडी बनाम एनडीए, झारखंड और बंगाल के असर से पलट सकते हैं समीकरण!**
बिहार की राजनीति में मगध का इलाका हमेशा से ही खास पहचान रखता आया है। मगही बोली वाले इस क्षेत्र की राजनीतिक तासीर भी उतनी ही घुलनशील और असरदार मानी जाती है, जितनी यहां के मशहूर मगही पान की पत्ती। बिहार की राजनीति में जिस भी दल के साथ मगध खड़ा हो जाता है, उसकी जीत की राह काफी हद तक आसान हो जाती है।
मगध क्षेत्र, जो गया, अरवल, जहानाबाद, औरंगाबाद और नवादा जिलों में फैला है, न सिर्फ विधानसभा की 26 सीटों पर फैसला करता है बल्कि इसका प्रभाव पटना, नालंदा, शेखपुरा, लखीसराय और जमुई तक भी दिखाई देता है। यही वजह है कि हर चुनाव में मगध की सीटें निर्णायक भूमिका निभाती हैं।
एक वक्त था जब मगध पर राष्ट्रीय जनता दल (RJD) का दबदबा हुआ करता था। लालू प्रसाद यादव की राजनीति में ये इलाका उनका गढ़ माना जाता था। लेकिन जैसे ही सुशासन बाबू नीतीश कुमार के नेतृत्व में जनता दल यूनाइटेड (JDU) और एनडीए ने पकड़ बनाई, मगध की सियासी तस्वीर भी बदल गई। साल 2010 में तो स्थिति यह रही कि आरजेडी यहां सिमटकर बस एक ही सीट पर रह गई थी, बाकी सभी सीटों पर एनडीए ने परचम फहराया।
हालांकि 2015 में जब नीतीश कुमार ने आरजेडी के साथ गठबंधन किया, तो मगध में समीकरण फिर से बदले और आरजेडी ने 10 सीटों पर कब्जा जमाया। जेडीयू और कांग्रेस ने भी इस चुनाव में बेहतर प्रदर्शन किया। लेकिन 2020 के चुनाव में एक बार फिर नीतीश कुमार एनडीए के साथ लौट आए और मुकाबला रोचक हो गया।
इस बार आरजेडी ने मगध में अपने गढ़ को बचाए रखा और कई जिलों में एनडीए को साफ सुथरा जवाब दिया। खासकर औरंगाबाद, जहानाबाद और अरवल जैसे जिलों में एनडीए का खाता तक नहीं खुला और महागठबंधन ने पूरी तरह कब्जा जमा लिया। गया जिले में जीतनराम मांझी की पार्टी ने भी अपने प्रभाव का लोहा मनवाया।
मगध की राजनीति पर झारखंड और पश्चिम बंगाल का प्रभाव भी किसी से छुपा नहीं है। इन दोनों राज्यों में भी मगही बोलने वाली आबादी अच्छी-खासी है। खासतौर पर झारखंड के पलामू, हजारीबाग, चतरा, कोडरमा और बंगाल के मालदा जिले में मगही बोलने वालों की मौजूदगी का असर बिहार की सियासी फिजा पर पड़ता है।
भाषाई, सांस्कृतिक और आर्थिक जुड़ाव ने मगध की राजनीति को हमेशा बहुआयामी बना दिया है। झारखंड सरकार द्वारा भोजपुरी और मगही को क्षेत्रीय भाषा की सूची से बाहर करने का फैसला हो या फिर बंगाल में भाषाई आंदोलनों की गूंज — इन सबने मगध की राजनीति को न सिर्फ प्रभावित किया बल्कि स्थानीय नेताओं को अपने बयान और रणनीति बदलने पर भी मजबूर किया।
अब जब बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की आहट सुनाई दे रही है, एक बार फिर नजरें मगध पर टिक गई हैं। क्या इस बार आरजेडी अपना किला बचा पाएगी या एनडीए इस गढ़ को फतह करने में सफल रहेगा? क्या झारखंड और बंगाल की राजनीतिक हलचलों का प्रभाव इस बार भी मगध के नतीजों को प्रभावित करेगा?
इन सभी सवालों का जवाब चुनावी नतीजों में मिलेगा, लेकिन इतना तो तय है कि मगध की राजनीति एक बार फिर से बिहार के सियासी संग्राम में किंगमेकर की भूमिका निभाने वाली है।
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